*माता चन्द्रघण्टा शक्ति का दिव्य स्वरूप*

सनातन धर्म में देवी की उपासना सर्वोच्च स्थान रखता है । नवरात्र पर्व के पावन दिनों में माता के नौ स्वरूपों की पूजा-अर्चना की जाती है । नवरात्र के तीसरे दिन माता चन्द्रघण्टा के स्वरूप की आराधना की जाती है । माता का यह स्वरूप अत्यन्त वीर , उग्र और तेजस्वी माना गया है । चन्द्रघण्टा नाम से ही माता की विशेषता स्पष्ट हो जाती है । उनके मस्तक पर अर्ध चन्द्र के आकार की स्वर्णिम घण्टा सदृश्य अलंकरण शोभायमान होता है । जिस सॆ निरन्तर दिव्य ध्वनि उत्पन्न होती रहती है । यह ध्वनि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में शत्रुओं का नाश करने वाली और भक्तों को भयमुक्त करने वाली है । माता चन्द्रघण्टा का स्वरूप करुणा , सौम्यता और शौर्यता का अद्भुत सामंजस्य है । वे एक ओर भक्तों को सुख , शांति और समृद्धि प्रदान करती हैं , वहीं दूसरी ओर दुष्टों , असुरों और अत्याचारियों के विनाश हेतु युद्धक्षेत्र में सिंह पर आरुढ़ होकर प्रचण्ड शक्ति के साथ प्रकट होती हैं । उनके पूजन से न केवल आध्यात्मिक उन्नति होती है , अपितु जीवन से भय , संशय और शत्रुता का भी नाश होता है ।
उनका शरीर स्वर्ण के समान तेजस्वी है । वे दस भुजाओं से युक्त हैं और प्रत्येक भुजा में भिन्न-भिन्न अस्त्र-शस्त्र धारण किये हुए हैं । उनके हाथों में त्रिशूल , गदा , तलवार , धनुष-बाण , कमल , घण्टा , कमण्डल और अन्य दिव्य आयुध सुसज्जित रहते हैं । उनके गले में सफेद माला , माथे पर स्वर्णिम मुकुट और मस्तक पर चमचमाती अर्धचन्द्र सुशोभित रहते हैं । उनकी सवारी सिंह है , जो पराक्रम , वीरता और निर्भिकता का प्रतीक है । माता का मुख मण्डल अत्यन्त शांत और करुणा से परिपूर्ण रहता है , किन्तु उनकी आँखों में ऐसा तेज रहता है , जो शत्रुओं को भयभीत कर देता है । उनकी दिव्य घण्टा की ध्वनि असुरों के लिये मृत्यु का निमंत्रण व भक्तों के लिये कल्याणकारी आशीर्वाद मानी जाती है ।
चन्द्रघण्टा नाम दो शब्दों से मिलकर बना है चन्द्र व घण्टा । चन्द्र अर्थात् चन्द्रमा , जो शांति , शीतलता, सौम्यता का द्योतक है । घण्टा जो विध्वंशात्मक और रचनात्मक या नकारात्मक, सकारात्मक अथवा विनाशकारी और कल्याणकारी ऊर्जावान सशक्त ध्वनि का प्रतीक है । इस घण्टा की दिव्य ध्वनि से दुर्जन , दुराचारी , दुष्ट और दानव भयभीत होकर पलायन कर जाते हैं और सज्जन , सदाचारी , सभ्य और साधक का हृदय निर्मल , शुद्ध और पवित्र पावन हो जाता है ।
माता चन्द्रघण्टा का प्रादुर्भाव भगवान शिव-शिवा विवाह प्रसंग से सम्बन्धित है । गौरा गौरी का विवाह सुनिश्चित हुआ । दुल्हादेव देवाधिदेव महादेव विकृत बारातियों के साथ हिमालय पर्वत पहुँचे । उनका स्वरूप अत्यन्त विचित्र था । जटाजूट सिर पर गङ्गा , माथे पर चन्द्रमा , त्रिनेत्र , सर्पों का मौर , सर्पों का हार , सर्पों का कंकण , बिच्छुओं का कुण्डल , भस्मी भूत शरीर , बाघम्बर परिधान नरमुण्डों की माला , एक हाथ में त्रिशूल और दूसरे हाथ में डमरू , नङ्गा पाँव , बैल पर उल्टा सवार , भयानक भूत प्रेतों की बारातियों संग कैलाशपति पार्वती पति बनने भावी सास के समक्ष प्रस्तुत हुए । जिन्हें देखकर पार्वती जी की माता मैनादेवी चेतना शून्य हो गईं ।
तब माता पार्वती ने अपना स्वर्णिम तेजस्वी चन्द्रचण्टा स्वरूप धारण किया , जिससे सम्पूर्ण वातावरण में दिव्यता फैल गई । उन्होंने अपने तेज से सभी को शांत किया और भगवान शंकर को सुन्दर – सलौने वर के रूप में प्रकट होने हेतु अनुरोध किया । तदुपरान्त विवाह संस्कार की पूर्णाहुति हुई । इस वृत्तान्त का भावार्थ यह है कि – जब भी जीवन में असंतुलन , भय व अव्यवस्था फैलती हो तब माता चन्द्रघण्टा का प्रकट होना नितान्त आवश्यक होता है । वे शांति , संतुलन और सौम्यता का मार्ग प्रशस्त करती हैं ।
*डॉ. गौतमसिंह पटेल*
सालर सारंगढ़ छग


