06 सितम्बर : गणेश विसर्जन के संदर्भ में विशेष –
★ हर्ष-उल्लास संग व्यथा-वेदना युक्त विदाई ★

गणेश उत्सव का श्रीगणेश हर्षोल्लास व उमंगोत्साह के साथ होता है और समापन व्यथा – वेदना युक्त विदाई के साथ । जिस दिन से गणेश चतुर्थी-आनन्दाह्लादित महोत्सव का शुभारम्भ होता है , उसी दिन से ही गणेश चतुर्दशी-विरह सम्बन्धी पिछले बरस की विदाई यात्रा और जलप्लावित दृश्यावली संग व्यथित भावना भी मन – मस्तिष्क पटल में परिभ्रमण करती रहती है । यह वह दिन है जब अग्रपूज्य श्रीगणेश को विदा करने का समय आ जाता है । वस्तुतः यह विदाई किसी निर्जीव मूर्ति की नहीँ , अपितु हृदय के सबसे कोमल कोने में बसे एक जीवन्त स्नेहमयी अतिथि रूपी इष्टदेव की है । गणेश महोत्सव स्थापन के दिन से विसर्जन के दिन तक भक्तों के जीवन में मानो नई ऊर्जा का संचार कर देता है ।
महोत्सव कालखण्ड में भक्ति की पावनता , चन्दन की सुगंध , अगरबत्ती की महक , मोदक की मादकता , लड्डू की मिठास और विभिन्न जाति – समाज की एकता विषयान्तर्गत सुखद भावानुभूति आदि सब मिलकर हृदय को आलोकित आनन्दाह्लाद आभास कराते हैं , लेकिन विसर्जन का दिन एक अपूर्व विरोधाभास समेटे हुए होता है । हृदय उल्लासित भी है और उदास भी । यह वह दिन है , जिस दिन सगाई और विदाई सुख – दुःख परस्पर आलिंगन करते हैं । गणेश विसर्जन का दर्शन द्विस्वभावी होता है । एक ओर भक्तजन भजन – कीर्तन , गायन – वादन – नर्तन , ढोल – मृदंग , झाँज – मँजीरों की गूंज व धुन के साथ उमंग प्रकट करते हैं और दूसरी ओर भक्तजन के अन्तःकरण के किसी कोने में व्यथा – वेदना व करुणा की कोमल तरंग भी उठती है । गणेश विसर्जन मात्र मिट्टी की मूर्ति का जल में विलय ही नहीं है , वरन् हृदय की कोमल भावनाओं का पुनर्मिलन की आस भी है ।
हवन , आहूति , पूर्णाहूति , झाँकी , शोभायात्रा –
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पुरोहित द्वारा पूर्व निर्मित हवन कुण्ड और हवन पण्डाल की शुद्धि , आसनों की शुद्धि , स्वयं और यजमान की शुद्धि , आचमन , संकल्प , कलश स्थापन , गणेश पूजन , नवग्रह पूजन , हवन कुण्ड में अग्नि प्रज्वलन , मंत्रोच्चारण , आहूति , पूर्णाहुति , प्रार्थना , शांतिपाठ , प्रदक्षिणा , हवन सामग्रियों का यथास्थान विसर्जन , प्रसाद वितरण , कन्या भोज , ब्राह्मण भोज , श्रीगणेश जी का ध्यान – स्मरण , चिन्तन – मनन और मन ही मन श्रीगणेश मंत्र का जाप करते हुए झाँकी में श्रीगणेश प्रतिमा का स्थापन उपरान्त विसर्जन स्थल की ओर प्रस्थान ।
जैसे ही शोभा यात्रा का श्रीगणेश होता है भक्तजन गजानन पथ पर निकल पड़ते हैं । हाथों में केसरिया ध्वज , आँखों में झाँकी की झलक , हृदय में मौन अर्चना , होठों पर ‘ पुढ़च्या वर्षी लवकर या ‘ पुकार , पायल और झाँज-मँजीरा की झंकार , ढोलक-मृदंग की थाप , स्वर साधकों की स्वरलहरी , आधुनिक बैण्डपार्टी की धुन , मार्ग में भक्तों और भगवान पर बरसते फूल , असंख्य जनसमूह और आयोजक दल का गगनभेदी जयघोष इत्यादि सब के सब मिलकर भव्य और दिव्य शोभायात्रा की शोभा बढाते हैं , मानों गाँव–ग्राम , डगर-नगर स्वयं.भक्तिभाव का परिधान धारण कर विदा देने निकल पड़ा हो ।
विसर्जन स्थल पर पहुँचते ही श्रीगणेश जी की स्वागत में सम्भवतः जलाशयों की लहरें भी थम जाती हैं । विनायक के जलाशय में उतरते ही उपस्थित प्रत्येक भक्त के हृदय में यह भाव प्रवाहित होता है कि हे गजानन ! यह आपके केवल स्वरूप का ही विसर्जन है , आप तो स्वयं हमारे अन्तःकरण में सदा-सर्वदा विद्यमान रहेंगे । जैसे-जैसे प्रतिमा जल में विलीन होती जाती है , वैसे-वैसे मन-मस्तिष्क में यह विश्वास सुदृढ़ होता जाता है कि यह विदाई पुनर्मिलन की एक विशेष प्रस्तावना है । गणेश विसर्जन हमें जीवन का गहन सत्य सिखाता है कि प्रत्येक प्रारम्भ का अवसान सुनिश्चित है और प्रत्येक अवसान एक नवीन प्रारम्भ का द्वार खोलता है । यह केवल धार्मिक परम्परा ही नहीं , अपितु जीवन का वह दर्शन भी है , जो विसर्जन में आनन्द और विछोह में आशा का दीप जलाए रखता है । ‘ गणपति बप्पा मोरया , अगले बरस तू जल्दी आ ‘ – यह केवल एक नारा ही नहीं है , अपितु यह हमारी आस्था और विश्वास की शाश्वत गूँज भी है , जो हमें स्मरण दिलाती है कि परमेश्वर का आगमन क्षणिक हो सकता है , लेकिन उसका प्रेम , दया और कृपा अनन्तानन्त रहा , है और रहेगा ।
गणपति बप्पा मोरया , अगले बरस तू जल्दी आ –
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गणेश प्रतिमा के साथ भक्त अपनी मनोभावनाएँ और अपनी प्रार्थनाएँ भी जल में प्रवाहित कर देते हैं । यह विदाई पल क्षण भर के लिए भारी अवश्य लगती है , लेकिन अन्दर ही अन्दर यह स्मरण भी कराती है कि गणपति बप्पा हमें कभी भी छोड़कर नहीं जाते । वे साकार रूप से हमारे साथ कुछ दिनों तक ही रहते हैं , तदुपरान्त निराकार रूप में हमारे प्रत्येक रग -रग में , प्रत्येक श्वास में विद्यमान रहते हैं । विसर्जन की यह परम्परा जीवन के उस शाश्वत सत्य का प्रतीक है – ‘ जो आया है वह जाएगा और जो गया है वह पुनः आएगा । इसी भक्ति – भावांजलि और विनम्र अनुनय – विनय के साथ भक्तजन विनायक से प्रार्थना करते हैं कि हे प्रभु !
” गणपति बप्पा मोरया , अगले बरस तू जल्दी आ “
विनम्र अनुनय-विनय के साथ क्षमा-याचना –
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विसर्जन उपरान्त जलाशय स्थल में ही गणाधीश से भक्तजन श्रद्धा और भक्ति भावपूर्ण विनम्र अनुनय-विनय के साथ क्षमा-याचना करते हैं कि हे गणपति ! यदि उत्सव कालखण्ड में आयोजन-प्रयोजन , अर्चना-प्रार्थना , भजन-कीर्तन , पूजा-पाठ इत्यादि किसी भी भाँति हमसे कोई भी अशुद्धि-त्रुटि हो गयी हो , तो हमें स्थायी रूप से हृदय से क्षमा करना । हे मंगलमूर्ति ! आप पूर्व निर्धारित समय पर ही पुनः पधारकर हमें सेवा का पुनः भरपूर अवसर दें , हमारी श्रद्धा और भक्ति में अभिवृद्धि करें और हमें सदैव सत्य , धर्म , कर्तव्य , कर्म , आदर्श , सदाचार और रचनात्मक विचारधारा की ओर दृढ़तापूर्वक अग्रसर करें ।
इस प्रकार विसर्जन स्थल पर हमारी की गयी क्षमा-याचना न केवल हमारे और गणेश जी के मध्य आत्मीयता का बन्धन दृढ़ करती है , अपितु हमें यह भी सिखाती है कि ईश्वर के प्रति तन , मन , धन , पन , वचन , आचरण , सकल तत्व , सकल पदार्थ और सकल वस्तु सविनय समर्पित करना ही परम पिता परमात्मा की वास्तविक पूजा है । यह क्षमा-याचना मात्र धार्मिक परम्परा ही नहीं , वरन् आत्मशुद्धि की पुण्य प्रक्रिया भी है । क्षमा-याचना का यह भक्तिभाव हमें यह भी स्मरण कराता है कि पूजा-अर्चना केवल उत्सव के दिनों तक ही सीमित न रहे , अपितु हमारे आचरण – विचरण , वाणी और विचारों में भी सदैव प्रवाहित होता रहे ।
‘ ॐ गं गणपतये नमः ‘
भवदीय
डॉ. गौतमसिंह पटेल ‘ सालर ‘
सारंगढ़-बिलाईगढ़-छत्तीसगढ़