
नवरात्रि के सातवें दिन माता कालरात्रि की पूजा समर्पित है । माता कालरात्रि को अपेक्षाकृत सबसे उग्र , सर्वाधिक विकराल और अत्यन्त कल्याणकारी के रूप में पूजा जाता है यद्यपि उनका यह बाह्य स्वरूप अत्यधिक भयानक प्रतीत होता है तथापि आन्तरिक स्व रूप अत्यन्त दयालु , सुरक्षक व साधकों के सकल विघ्न बाधाओं को नष्ट करने वाला है । माता कालरात्रि की पूजा अर्चना करने से बुरी शक्तियों तथा अकाल मृत्यु से रक्षा होती है । दूसरे शब्दों में माता कालरात्रि की उपासना करने के उपरान्त साधकों को नकारात्मक व विध्वंशात्मक दृष्टिकोण और अकाल मृत्यु का भय नहीं रहता चूँकि मां कालरात्रि भक्तों को प्रत्येक प्रकार के भय से मुक्त करती हैं और सभी प्रकार की सिद्धियाँ तथा शुभ फल प्रदान करती हैं , इसीलिये उन्हैं शुभंकरी के नाम से भी सम्बोधित किया जाता है। मां कालरात्रि का स्वरूप अत्यन्त भयानक किन्तु दिव्य है । उन का वर्ण गहन काला है वें चार भुजाओं से युक्त हैं , उनका एक हाथ अभय मुद्रा में है , जो साधकों को निर्भयता का आशीर्वाद देता है और दूसरा हाथ वरमुद्रा में होता है , जो दया , कृपा और समृद्धि प्रदान करता है । शेष दो हाथों में से वे एक में कटार और दूसरे में लोहे का काँटा/फंदा धारण करती हैं । वे अनेकानेक हाथ तथा अनेकानेक आयुध वाला स्वरूप भी धारण कर सकती हैं । उनके केश खुले हुए हैं । उनके तीन नेत्र हैं , जो ब्रह्माण्ड की भाँति गोलाकार हैं । शरीर से लपटें निकलती हैं । उनकी सवारी गधा है । उनके इस स्वरूप को देख कर दानव , तांत्रिक शक्तियाँ और भूत-प्रेत भी भयभीत हो जाते हैं । इसी कारण उन्हें शुभ करोति कालरात्रि कहा गया है । अर्थात जो देखने में साक्षात काल जैसी प्रतीत होती हैं , पर वस्तृतः कल्याण करने वाली हैं ।
एक बार शुम्भ – निशुम्भ नामक दो महादैत्य देवी माँ को युद्ध के लिये ललकारते हैं । देवी माँ ने जब उनके सेनापति रक्तबीज से युद्ध किया , तब रक्तबीज की एक विचित्र शक्ति थी जब भी उस का रक्त भूतल पर गिरता , उसी स्थान से एक नया रक्तबीज उत्पन्न हो जाता था । जब उनकी संख्या अत्यधिक बढ़ गई , तब माता पार्वती ने अपने उग्र रूप कालरात्रि को प्रकट किया । माता कालरात्रि ने अपनी जीभ फैलाकर रक्तबीज के रक्त को भूतल पर गिरने से पूर्व ही पी लिया । धीरे-धीरे पूर्व उत्पन्न सभी रक्तबीजों को संहार कर डाला । इस प्रकार उन्होंने सम्पूर्ण सृष्टि को राक्षसी विनाश से बचाया । यह कथा माता के संहारक रूप को दर्शाती है , जो अन्याय , अंधकार और अधर्म का नाश करती हैं । मां कालरात्रि की पूजा सातवें दिन की जाती है । इस दिन साधक अपने अज्ञान , भय , संशय , नकारात्मक तथा विध्वंशात्मक ऊर्जा को दूर करने के लिये इनकी उपासना करते हैं । विशेषकर ध्यान , योग , तांत्रिक साधना और मंत्र सिद्धि में इनकी पूजा अत्यन्त प्रभावशाली मानी जाती है । पूजाविधि में साधक प्रातःकाल स्नान ध्यान कर स्वच्छ परिधान धारण कर माता की मूर्ति अथवा प्रतिमा पर गुग्गुल , कपूर , धूप , सरसों तेल , दीप , लाल पुष्प , काला तिल आदि अर्पित करते हैं । नीले अथवा काले रंग के वस्त्र पहनकर साधना करना शुभ माते हैं। जागरण , तंत्र-मंत्र और भैरव पूजा विशेष प्रिय है ।
माता कालरात्रि का स्वरूप दर्शाता है कि अंधकार , भय व मृत्यु जीवन के आवश्यक अङ्ग हैं , जिन्हें समझना , स्वीकारना और अन्ततः उनसे पार उतरना ही मानव मात्र का मूल उद्देश्य है । उनके नाम में ही दर्शन छिपा है । काल अर्थात समय अथवा मृत्यु और रात्रि अर्थात अंधकार । देवीमाँ यह सिखाती हैं कि – जब मानव अपने अन्दर के अज्ञान , भय नकारात्मक , विध्वंशात्मक प्रवृत्तियों का सामना करता है , तब ही वह आध्यात्मिक उन्नति की ओर बढ़ता है । कालरात्रि ध्यान , योग और तंत्र साधना की अधिष्ठात्री देवी हैं । जिन साधकों का मन चंचल हो , जिन्हें नकारात्मक विचार सताते हों , जो तांत्रिक प्रयोगों से भयभीत होते हों , उनके लिये माता कालरात्रि की उपासना विशेष फलदायी होती है । वे जीवन की सबसे भयानक रात को भी प्रकाश में बदल सकती हैं । अतएव स्पष्ट है कि माता कालरात्रि केवल और केवल एक उग्र देवी ही नहीं , अपितु वे आध्यात्मिक शक्ति का वह स्वरूप भी हैं , जो अज्ञान , अंधकार , भय , दुराचार को समाप्त कर ज्ञान , प्रकाश , निर्भयता , सदाचार और धर्माचार की ओर ले जाती हैं । उनका पूजन धार्मिक कृत्य ही नहीं , अपितु आत्म अन्वेषण और आन्तरिक शुद्धि का प्रतीक भी है । विद्यमान युग में जब भय , भ्रम और तनाव ने मानव मन को ग्रसित किया हुआ है , तब माता कालरात्रि का ध्यान मनुष्य को स्थिरता , सुरक्षा और आत्मबल प्रदान करता है । वे हमें यह सिखाती हैं कि अंधकार चाहे जितना भी गहरा हो , प्रकाश की एक किरण भी उसे मिटा सकती है और माता कालरात्रि वही दिव्य ज्योति हैं ।
*डॉ. गौतमसिंह पटेल* सालर , सारंगढ़ छग.


